जाग्रति > #1

चरित्रों का नाटक तिरूर गांव में 1950 के दशक में स्थापित होता है। घरों में पारंपरिक वास्तुकला सजी हुई होती है, और हवा चमेली की खुशबू से भरी होती है। गांव के लोग अपने दैनिक जीवन को जीने में लगे रहते हैं, जो उनके दिल में गहरी रूप से बसी धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं का पालन करते हैं।
Rajeev
मीरा, अर्जुन, तुम कैसे संदिग्ध कर सकते हो जाति व्यवस्था को? यह हमारे समाज का परिभाषित संरचना है, जो शताब्दियों से हमारी परंपराओं और मूल्यों को संरक्षित करती है!
Meera
राजीव, जाति व्यवस्था शायद पहले का काम कर चुकी हो, लेकिन समय बदल चुका है। हमारे समाज को आगे बढ़ना चाहिए और सभी के लिए समानता को ग्रहण करना चाहिए। हम जन्मबंधन के आधार पर भेदभाव करना जारी रखने का नहीं कर सकते।
Arjun
मीरा सही कह रही है, राजीव। हमारे गांव को प्रगति की जरूरत है, स्थागन की नहीं। जाति व्यवस्था केवल अत्याचार को बढ़ावा देती है और हमारे लोगों की क्षमता की सीमा को सीमित करती है। इसे बदलने का समय हो गया है।
Rajeev
बदलाव? प्रगति? ये सिर्फ खोखले शब्द हैं! हमारे पूर्वजों ने पीढ़ीवर पीढ़ी इस व्यवस्था का पालन किया है। हम कौन होते हैं उनकी बुद्धिमत्ता पर सवाल उठाने वाले?
Meera
राजीव, इसका मतलब है कि हम उनकी बुद्धिमत्ता पर सवाल नहीं कर रहे हैं, बल्कि उसे दोबारा मूल्यांकन कर रहे हैं। हम भेदभाव को बढ़ावा दिए बिना अपनी परंपराओं का सम्मान कर सकते हैं। इसे तोड़ने का समय आ चुका है।
Arjun
ठीक कहा, मीरा! हमारे विश्वासों को समय के साथ विकसित होना चाहिए, जैसे हम करते हैं। चलो एक ऐसे गांव की कल्पना करें जहां सभी को उनके कौशल के लिए महत्व दिया जाता है, न कि उनकी जाति के लिए। यह एक बेहतर तिरूर हो सकता है।
Rajeev
तुम दोनों सपनों की बात करते हो, लेकिन वास्तविकता कठोर है। जाति व्यवस्था हमारे समाज में गहरी जड़ी हुई है, और यह कुछ ऐसा नहीं है जिसे हम आसानी से छोड़ सकते हैं।
Meera
लेकिन राजीव, पुरानी व्यवस्थाओं में चिढ़चिढ़ाहट से हमारी प्रगति को ही रोका जाएगा। यह तिरूर और उसके लोगों के लिए एक और समावेशी भविष्य का समय है।
Arjun
राजीव, बदलाव के लिए साहस चाहिए। अगर हम अभी कार्रवाई नहीं करेंगे, तो हमारा गांव पिछड़ा हुआ रहेगा। हमें खुद को और भविष्य की पीढ़ियों को एक समान समाज की ओर प्रयास करने की ज़िम्मेदारी है।