चरित्रों का नाटक तिरूर गांव में 1950 के दशक में स्थापित होता है। घरों में पारंपरिक वास्तुकला सजी हुई होती है, और हवा चमेली की खुशबू से भरी होती है। गांव के लोग अपने दैनिक जीवन को जीने में लगे रहते हैं, जो उनके दिल में गहरी रूप से बसी धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं का पालन करते हैं।